हाँ मेरे पिताजी भी आखिरी साँस तक पत्रकार रहे

हाँ मेरे पिताजी स्वर्गीय मधु सुदन वाजपेयी माधव भी आखिरी साँस तक पत्रकार रहे. वह एक आदर्श  पत्रकार थे जिनका सिधांत था कि हमें अपनी आवश्यकता के साधन उतने ही जुटाने चाहिए जो अपरिहार्य हों. वह संत पत्रकार थे सुख सुविधा के आधुनिक संसाधनों से उन्हें लेश मात्र मोह नहीं था सन १९३० में अपनी पैदाइश के बाद गुलाम भारत की त्रासदी को करीब से देखते हुए उन्होंने हरद्वार से निजी परीक्षार्थी के रूप में इंटर की परीक्षा दी और परिवार की स्थिति को देखते हुए नौकरी करने कलकत्ता चले गए सन १९४७-१९४८ में १८ वर्ष से भी कम उम्र में वह वहाँ से निकल रही जीवन पत्रिका के संपादक हो गए दो वर्ष तक कलकत्ता में नौकरी करने के बाद घर की स्थिति कुछ सम्हलने पर उनके पिताजी यानि मेरे बाबा ने उन्हें वापस बुला लिया उस समय पिताजी का मासिक वेतन २०० रूपए प्रति माह था घर लौटने पर वह एक स्कूल में अध्यापक हो गए. इस बीच एक रोचक घटना भी हुई पिताजी के करने कलकत्ता चले जाने के बाद इंटर का परीक्षा परिणाम  निकला पिताजी को पत्र लिखकर उनका रोल नंबर पूछा गया संयोगवश पिताजी के पास प्रवेश पत्र नहीं था उन्हों ने याददाश्त के आधार पर रोल नंबर लिखकर पत्र भेज दिया लेकिन यहाँ किस्मत दगा दे गई जो रोल नंबर पिताजी ने याददाश्त के आधार पर लिखकर भेजा उस रोल नंबर का परीक्षार्थी फेल था पिताजी को पत्र लिखकर बाबा ने कहा माधव तू इंटर की परीक्षा में फेल हो गया है लेकिन असली परीक्षा नौकरी कर घर चलाने में अव्वल नंबर से पास हुआ है . अब घर की स्थिति सम्हल गई है इस लिए पढाई के लिए  नौकरी छोड़कर घर आ जा. लेकिन अभी एक मजाक और बाकी था इसबीच मेरी बुआ को पिताजी के साथ पढने वाली एक लड़की मिली उसने बुआ से मिठाई मांगी बुआ ने कहा किस बात की मिठाई तो उसने कहा अरे माधव भैया की यूपी में तीसरी पोजीशन आई है तब जाके घर में सब को सचाई पता चली इसके बाद पिताजी हरद्वार लौटकर आए और एक स्कूल में अध्यापक हो गए और आगरा विश्व विद्यालय से निजी परीक्षार्थी के रूप में बीए का फार्म भर दिया. उस समय यैसा नियम था कि शिक्षक परीक्षार्थी एक साल में बीए कर सकता था. परीक्षा के दिनों में पंडित राधे श्याम कथावाचक के घर में रहकर पिताजी ने  बीए की परीक्षा दी और उत्तीर्ण की इसके बाद वह लखनऊ से निकलने वाले एक अख़बार में संपादक हो गए इस बीच मेरी माताजी से उनकी शादी हो गई लेकिन ज्यादा समय तक यहाँ उनका मन नहीं लगा और वो यह नौकरी छोड़कर झाँसी में वैद्यनाथ आयुर्वेद लि. में दवाओ के प्रसार व्यवस्थापक हो गए यह नौकरी भी उनके मनमाफिक नहीं रही और वह इसे छोड़कर पुनः हरद्वार में सप्त ऋषि आश्रम संस्कृत विद्यालय में प्रथम प्रधानाचार्य हो गए जिसका उद्घाटन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने किया लगभग दो वर्ष तक यहाँ काम करने के बाद उनका मन यहाँ से भी उचट गया और दिल्ली में शब्दकोष निर्माण के काम में लग गए इस बीच इलाहाबाद में सरस्वती प्रेस में उन्हें थोडा मन का काम दिखा और वह दिल्ली से इलाहाबाद आ गए और प्रेमचंद के उपन्यासों के उन्ही की शैली में संक्षिप्तिकरन में जुट गए इस दौरान पिताजी ने प्रेमचंद के पांच उपन्यासों का उन्ही की शैली में संक्षिप्तिकरन किया लेकिन शायद स्थिरता पिताजी के भाग्य में नहीं थी एक बार फिर उनके इलाहाबाद छोड़ने का समय आ गया और वह कानपुर से निकलने वाले एक अख़बार के संपादक होकर कानपुर आ गए लेकिन यहाँ भी परिस्थितियां अनुकूल न दिखने पर कानपुर से ही निकलने वाले दैनिक जागरण में उन्हों ने उप संपादक के रूप में नौकरी की शुरुआत की. सात वर्ष तक दैनिक जागरण में पत्रकारिता करने के बाद १९७६ में उन्हों ने सब के मना करने और समझाने के बावजूद नौकरी छोड़ दी और हरद्वार अपना प्रकाशन शुरू करने चले गए लेकिन प्रकाशन चल नहीं पाया और १९८० में उन्हें पुनः दैनिक जागरण में नौकरी करने आना पड़ा. और १९९२ में एक हादसे में निधन से एक दिन पहले तक वह दैनिक जागरण से जुड़े रहे. मेरे पिताजी के आदर्शो के चलते ही उनके साथ काम कर चुके आज के तमाम बड़े पत्रकार उन्हें अपना आदर्श मानते हैं. यह थी मेरे पिताजी के अखबारी जीवन की कहानी। 

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