मेरे बाबा

मेरे बाबा आचार्य किशोरी दास वाजपेयी हिंदी के पाणिनि कहे गए पत्रकारिता व समाज सुधार के अलावा स्वतन्रता आन्दोलन में भी उन्होंने हिस्सा लिया लेकिन उनके शुरूआती संघर्ष की कहानी बहुत रोचक है. उनके बचपन का नाम गोविन्द था, १८९५ में १५ दिसम्बर को कानपुर के एक छोटे से गाँव रामनगर में जन्म लेने के बाद जब वह लगभग दस साल के रहे होंगे प्लेग में उनके माता पिता का स्वर्गवास हो गया. मासूम गोविन्द अनाथ हो गया. शुरुआत में तो कुछ समझ में नहीं आया और गाँव के ही एक पाठक जी के जानवर चराने लगे. एक दिन बालक गोविन्द का ध्यान बट गया और जानवर दूसरे के खेत में घुस गए शिकायत हुई तो पाठक जी ने पिटाई कर दी इस घटना से गोविन्द को गहरा सदमा लगा क्योंकि जब तक गोविन्द के पिता पंडित सत्तीदीन वाजपेयी जीवित थे पूरे कानपुर क्षेत्र में उनका नाम गूंजता था अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने के नाते उन्हें शूरमा भाई के नाम से आदर के साथ जाना जाता था आसपास के जमींदार उनके नाम से थर्राते थे. वह रईस नहीं थे पर नाम के धनी थे. जबतक वह जीवित थे किसी की मजाल नहीं थी कि कोई कुछ बोल दे. इस लिए अपमान की आग में जलते बालक गोविन्द को उस समय उनके बहनोई ने सहारा दिया और अपने घर ले गए. लेकिन मुसीबतें अभी जारी थीं जीजा ने एक दिन मीट धोकर लाने को कहा, गोविन्द मन से पूर्ण शाकाहारी था उसे यह कबूल नहीं हुआ और उसने मन कर दिया. जीजा को यह इंकार नागवार गुजरा उन्होंने एक बार फिर गोविन्द को पीट दिया बालक गोविन्द अपमान की आग में जलता हुआ फिर चल पड़ा क्योंकि बहन का तो माता पिता के साथ पहले ही स्वर्गवास हो चुका था इस बार सहारा बनी एक दूर के रिश्ते की मौसी लेकिन वह खुद का पेट भरने में भी सक्षम न थी यहाँ आकर गोविन्द ने पहले घरों में पुताई का कम करने, स्टेशन पर चाट बेचने की कोशिश की लेकिन कही कुछ काम न बना तो उनके चचेरे चाचा उन्हें शहर ले गए और एक मिल में बोझा ढोने के काम में लगवा दिया जबकि उनकी ही उम्र का चाचा का लड़का पढ़ने जाता था, गोविन्द को लगा की उनका यह भाई तो पढ़ जाएगा वह ऐसे ही रह जाएँगे, मजबूरी यह थी कि इनका वेतन चाचा खुद ले आते थे एक दिन जब गोविन्द को वेतन मिलना था चाचा को देर हो गई और महीने भर की मजदूरी पांच रूपए इनके हाथ में आ गई, रूपए हाथ में आते ही गोविन्द भाग लिए.                                                                
काफी पहले मैने इस ब्लॉग की शुरुआत की थी लेकिन किन्हीं कारणों से यह पूरा नहीं कर सका। गतांक से आगे का घटना क्रम कुछ यूँ है कि अपने चाचा के यहाँ से भागने के बाद मेरे बाबा का भटकाव शुरू हुआ कहाँ जाएं कुछ पता नहीं था। भटकते भटकते साधुओं की एक जमात के संपर्क में आए।  साथ हो लिए तो जहां साधुओं ने पड़ाव डाला वहाँ पेशी बड़े महंतजी के सामने हुई उन्होंने जमात में रखने के लिए पढ़ने की शर्त रखी। अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। बाबा ने यह शर्त मान ली। गुरु ने नाम पूछा तो झूठ बोल दिया कि किशोरीदास। क्यूंकि तब तक ब्रज क्षेत्र में रहने के कारण राधा जी का रंग चढ़ चुका था। 
आश्रम में दोनों समय भोजन मिलता था और संस्कृत का अध्ययन करना होता था। मेधावी प्रवृत्ति के चलते अध्ययन में रूचि थी। प्रथमा, मध्यमा पास कर शास्त्री की परिक्षा में बैठे। उस समय यह परिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय करवाता था। नतीजा आया तो पूरे पंजाब में टॉप किया। समाचार पत्रों ने खबर छापी कि एक सन्यासी ने टॉप किया है। इस साल राहुल सांकृत्यायन जी भी परिक्षा में बैठे थे लेकिन वह फेल हो गए थे यह बात बाद में राहुलजी ने खुद किशोरीदास पर लिखे लेख में कही। अब किशोरीदास फिर गुरु के पास गए कहा पढ़ लिया अब दीक्षा दीजिये। बड़े महंत जी ने कहा अभी तुम में पूर्णता नहीं आयी है पहले गृहस्त धर्म में जाओ फिर जिम्मेदारियां निभा कर तब आना सन्यासी बनने। इसके बाद वह गृहस्थ धर्म में आए।  कई जगह अध्यापन कार्य किया। फिर क्रांतिकारी जीवन जिया।  इसके बाद जब देश आज़ाद होगया तब साहित्य सृजन का काम शुरू किया और अंत में हिंदी पाणिनि कहलाते हुए हिंदी को शब्दानुशासन जैसा ग्रन्थ दिया। कुल ३६ पुस्तकें लिखीं जिनका प्रकाशन उनके निधन के कई वर्ष बाद भाई अरुण माहेश्वरी जी के सहयोग से सम्भव हो सका।

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