दृश्य फतवों का अदृश्य विरोध

दृश्य फतवों का अदृश्य विरोध


“जो अपनी आंखों में हैरानियां लेके चल रहे हो तो जिंदा हो तुम,

दिलों में तुम अपनी बेताबियां लेके चल रहे हो तो जिंदा हो तुम”

ये लाइनें जाने माने शायर जावेद अख्तर की हैं। जिंदगी न मिलेगी दोबारा फिल्म में इन लाइनों का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया। कुल मिलाकर अर्थ एक ही था अगर जिंदा रहना है तो जिंदा नज़र भी आना चाहिए। आगे बढ़ते हैं…
पहला दृश्य :  ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। केवल एक दृश्य याद करना है। याकूब की फांसी के बाद उसे कब्रिस्तान ले जाने का सीन। कैसी भीड़ थी। किन लोगों की भीड़ थी। कितना विरोध था। किसका विरोध था।
दूसरा दृश्य : श्रीनगर और पूरी कश्मीर घाटी में ये दृश्य हर जुमे की नमाज के बाद देखा जाता है। हुर्रियत नेताओं के स्वयंभू चेले हाथों में पत्थर लेकर सेना को निशाना बनाते हैं। पाकिस्तान के झंडे लहराते हैं। और तो और ISIS के बैनर और झंडे भी इनके साथ होते हैं।
दृश्य तीन :  देश में जब आक्रमणकारी मुगल शासक के नाम पर रखा सड़क का नाम सरकार बदलती है। तो फिर विरोध के सुर उठते हैं। ऐतराज जताया जाता है कि औरंगजेब रोड का नाम बदलकर कलाम रोड नहीं होना चाहिए।
और अब आखिर में  दृश्य चार  :  भारत के तमाम मुस्लिम धर्मगुरू और उलेमा एक फतवा जारी करते हैं। फतवा दुनिया में दरिन्दगी की मिसाल कायम करने वाले ISIS के खिलाफ होता है। भारतीय मुसलमानों की आवाज बताकर ये फतवा संयुक्त ऱाष्ट्र भेजा गया है।
इन सभी दृश्यों में एक बात समान है। सबमें विरोध हुआ है। जमकर विरोध हुआ है। लेकिन कहां, किसका और किस सीमा तक विरोध हुआ है। इसके मायने समझने होंगे। जरूरत के हिसाब से विरोध का रिमोट कम या ज्यादा करने से काम चलने वाला नहीं है। अब विरोध है तो वो नज़र भी आना चाहिए। ISIS अपनी खलीफागीरी भारत की सीमा में भी देखना चाहता है। उसके चाहने वाले और विरोध करने वाले दोनों यहां हैं। किसी आतंकवादी संगठन और दहशतगर्द के सामने हमारे लोग किसी दुविधा हैं। इसका साफ न हो पाना बड़ा सवाल है। ISIS में शामिल होने वाले वहां जाने को बेताब हैं। मुंबई के जुबैर जैसे पत्रकार भी पकड़े गए हैं। जो ISIS के प्रवक्ता बनना चाहता है। बगदादी के आतंकवादी भारत को निशाना बनाने का खुलेआम ऐलान कर चुके हैं। तमाम भारतीय लड़के अलग अलग देशों जरिए इराक और सीरिया पहुंचकर आतंकवाद से हाथ मिला रहे हैं। एक हजार से ज्यादा मुस्लिम धर्मगुरुओं और उलेमाओं ने फतवा निकाल दिया है। क्रूर इस्लामिक स्टेट पर नाराजगी जताई है और इसे अमानवीय बताया है। जुमे की नमाज के बाद कश्मीर में ये विरोध कहां चला जाता है। याकूब की फांसी के वक्त किसका विरोध और किसके समर्थन में आवाजें बुलंद की जाती हैं। और औरंगजेब का नाम हटाने पर विरोध की आवाज कितनी जायज है। इस पर भी उन लोगों को फतवा निकालना होगा जिन्होंने ISIS के खिलाफ फतवा निकाला। अदृश्य विरोध के बीच दृश्य फतवों से अब काम चलने वाला नहीं है। कवि दुष्यंत कुमार की कुछ लाइनें हैं, हालात पर सटीक हैं…

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

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