संस्मरण -मेरे पंजाबी नाना
यह बात सन १९५९-६० की है। मेरे पिताजी उस वक्त हरद्वार में सप्त ऋषि आश्रम में खुले संस्कृत विद्यालय में प्रधानाचार्य थे। इस विद्यालय का उदघाटन पं. जवाहर लाल नेहरू ने किया था। वह उस समय प्रधानमन्त्री थे। पिताजी के साथ माताजी भी वहाँ रहती थीं। आश्रम में तमाम तीर्थयात्री आया करते थे। एक दिन पिताजी जब विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने गए तो माताजी ने देखा एक लगभग ५० वर्ष का अधेड़ सरदार घर के सामने बैठा है। दोपहर में भी वह वहीँ बैठा रहा। माँ जब बाहर निकलतीं तो वह उन्हें देखता रहता। सरदार जी की इस हरकत से परेशान माँ ने शाम को पिताजी के आने पर उनसे शिकायत की। तो पिताजी ने एक नज़र उनको देख कर माँ से कहा दो कप चाय बनाओ। फिर वह चाय लेकर सरदार जी के पास गए और उन्हें प्रणाम कर हाल चाल पूछा। इस पर वह सरदार जी फूट फूट कर रोने लगे। काफी देर रोने के बाद जब जी हल्का हुआ तो पिताजी से बोले बिटिया ने शिकायत की है ना ? पिताजी के हाँ कहने पर। उन्होंने कहना शुरू किया कि क्या बताऊँ बेटा मेरी भी एक बिटिया थी। बिलकुल आपकी पत्नी जैसी वैसे ही चिढ़ना वैसी ही हरकतें करना और वही चेहरा वही रंग रूप। मै तो अपनी बेटी की छवी सामने देख कर हतप्रभ रह गया इस लिये रुक गया। पिताजी ने उनके पैर छुए और कहा पिताजी आप बाहर क्यों बैठे हैं घर जाकर बेटी से क्यों नहीं मिले चलिए घर चलते हैं और बहुत आग्रह के साथ घर ले गए। और माँ से बोले देखो ये भी तुम्हारे पापा हैं। इसके बाद तो जैसे वह धन्य हो गए और जब तक जीवित रहे लगातार घर आते रहते और हम लोगों को नाना का प्यार देते रहे। हाँ कुछ भी खाने पीने का वह पैसा देना नहीं भूलते थे। भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति दे।
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