बचपन में बच्चे जब खेलते थे तो वह कल्पना का रंग भरकर अपने खेलों को मनोरंजक बनाते थे जैसे एक गीत भरा खेल अक्सर खेला जाता था "भरा समंदर गोपीचन्दर बोल मेरी मछली कितना पानी। इसमें एक बच्चे को मछली बना कर बाक़ी के बच्चे घेर लेते अब जिस बच्चे को मछली बनाया जाता था वो बताता था इतना पानी -इतना पानी और हाथो से पैरों से बताना शुरू करते हुए ऊपर को हाथ बढ़ाता जाता था और जब पानी सर के ऊपर होने को होता था तो घेरा तोड़ कर बाहर को भागता था फिर जिधर से घेरा टूटता था अब उधर का बच्चा घेरे के अंदर जाता था। इस तरह यह खेल चलता जाता था। दूसरा खेल था "कोड़ा जमाल खां का पीछे देखे मार खाए।" इसमें भी बच्चे बड़ा सा घेरा बनाकर बैठते थे और एक बच्चा बाहर रह कर कपडे के अंगौछे को या चादर को मरोड़ कर कोड़ा बना लेता था और "कोड़ा जमाल खां का पीछे देखे मार खाए।"गाता हुआ चलता था और जो बच्चा पीछे मुड़कर देखता था उसे वह कोड़ा मारता था और फिर चुपके से किसी के पीछे कोड़ा रख कर "कोड़ा जमाल खां का पीछे देखे मार खाए।"गाता हुआ निकल जाता था और घूमकर लौटने तक यदि उस बच्चे ने कोड़ा नहीं उठाया तो वह उसकी पीठ पर कोड़ा मारते हुए उसे दौड़ा लेता था और फिर चक्कर काटने के बाद उसकी जगह खुद बैठ जाता था अब वह बच्चा घूमता था और यही प्रक्रिया दोहराता था। खेल आगे बढ़ता जाता था। तीसरा खेल था। टीप मारने वाला जिसमे एक बच्चे को झुका कर बैठा देते थे फिर कई बच्चे धीरे धीरे सिर में मारते थे अब बच्चेको बताना होता था पहली टीप किसने मारी या आखिरी टीप किसने मारी। अगर सही बताया तो जिसका नाम बताया उसका नंबर आ जाता था अगर गलत बताया तो फिर मार खाओ। चौथा गेम होता था अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो अस्सी नब्बे पूरे सौ सौ में लगा तागा चोर निकल के भागा। पांचवां गेम था आइस पाइस या लुका छिपी जिस पर गाना भी बना कि आ मेरे हमजोली आ खेलें आँख मिचौली आ। जिसमे एक बच्चे को सौ तक गिनने को कह कर सब बच्चे छिप जाते थे वो सबको ढूँढता था। इस बीच अगर उसे टीप पद गई तो वह फिर चोर बनेगा वरना आखिर में जिस बच्चे को ढूंढा वो चोर बनेगा। छठा गेम था पकड़म पकड़ाई एक बच्चा चोर बने और सब बच्चों के पीछे बागे जिसे छू दे फिर वो बाक़ी के पीछे भागे। इसी गेम तो थोड़ा बदल कर खेला जाता था जब एक बच्चे की आँख पर बाक़ी उसे छूने को कहते थे , या थोड़ा बौर बदल कर एक टांग में पट्टी बांधकर छूने का खेल होता था। गुल्ली डंडा लोकप्रिय खेल था जिसमे लकड़ी के एक टुकड़े से बनी गुल्ली को डंडे से मारकर दूर उछाला जाता था बाकी बच्चे उसे कैच करते थे। कंचे कांच की गोलियां जमीन में लुढ़का कर किसी एक पर निशाना लगवाया जाता था। गेंद से मारने का खेल जिसके हाथ में आए वो दुसरे को मारे। बच्चों की टोली घरों के बाहर घूमती थी शाम ढलने पर सब घर लौटते थे कभी पढ़ने बैठाये जाते थे कभी बदमाशियों के लिए मार पड़ती थी लेकिन अगले दिन फिर वही रूटीन शुरू हो जाता था। कभी किसी को दीवार पर चढ़ा दिया कभी किसी की साइकिल की हवा निकाल दी, कभी किसी की गाय भैंस खोल दी किसी से चिढ गए तो उसका जीना मुहाल कर दिया। ये था बचपन मार पिटाई को ऐसे लेते थे जैसे शरीर से गर्दा झाड़ा गया हो अगले दिन फिर वही शरारत।
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