बनारस में शिवरात्रि की तैयारियों की धूम
बनारस में इन दिनों शिवरात्रि की तैयारियों की धूम है। इस वर्ष शिवरात्रि २७ फ़रवरी को है।
शिवरात्रि -
वाराणसी वैभव से साभारफाल्गुन कृष्ण पक्ष १४ (चौदह) को लगनेवाला यह मेला बनारस के खास मेलों में है। इन दिन लोग गंगा स्नान करके बनारस के सैकड़ों शिवमंदिरों की यात्रा करते हैं पर मुख्य मेला तो बाबा विश्वनाथ पर लगता है। शिव को प्रसन्न करने के लिए इस रोज लोग भाँग-बूटी भी छानते हैं।शिवरात्रि का अर्थ है वह रात्रि जिसका शिव के साथ विशेष संबंध हो। जिसमें शिवपूजा उपवास और जागरण होता है। फाल्गुन कृष्ण-चतुर्दशी की महानिशा में आदिदेव कोटि सूर्यसमप्रभ शिवलिंग के रुप में आविर्भूत हुए थे। अत: शिवरात्रि व्रत में ही महानिशाव्यापिनी चतुर्दशी ग्रहण की जाती है। चतुर्दशी तिथियुक्त चार प्रहर रात्रि के मध्यवर्ती दो प्रहरों में से पहले की अन्तिम और दूसरे की आदि इन दो घटिकाओं की घड़ी की ही महानिशा संज्ञा है। इसका अमावस्या के साथ संयोग इसलिए देखा जाता है कि अमा अर्थात एक साथ वास करते है - अवस्था करते हैं - सूर्य और चन्द्र जिस तिथि में वह 'अमावस्या' है। साधन-राज्य में सूर्य और चन्द्र परमात्मा और जीवात्मा के बोधक हैं।
फाल्गुन के पश्चात वर्ष चक्र की भी पुनरावृत्ति होती है अत: फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को पूजा करना एक महाव्रत है जिसका नाम महाशिवरात्रि व्रत पड़ा।
रात्रि 'रा' दाशर्थक धातु से रात्रि शब्द बनता है अर्थात जो सुखादि प्रदान करती है, आनन्ददायी है। यहाँ रात्रि की स्तुति से प्रकृति देवी, दुर्गा देवी अथवा शिवा देवी की स्तुति ही समझना चाहिए।
जिस प्रकार नदी में ज्वार-भाटा होता है, उसी प्रकार इस विराट ब्रह्माण्ड में सृष्टि और प्रलय के दो
विभिन्नमुखी स्रोत नित्य बह रहे हैं।
दिवस और रात्रि की क्षुद्र सीमा में उन्हें बहुत छोटे आकार में प्राप्त कर उसे अधिगत करना हमारे
लिए सम्भव है। एक से अनेक और कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है और ठीक इसके विपरीत अर्थात अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना ही प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियाँ हमारे आत्मा के समीप से भीतर से बाहर विषय-राज्य की और दौड़ती हैं और विषयानन्द में ही मग्न रहती है। पुन: रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा की ओर, अनेक को छोड़कर एक की ओर, शिव की ओर प्रवृत्त होती है। हमारा मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर, भेद-भाव की ओर, अनेक की ओर, गजत की ओर, कर्माकाण्ड की ओर जाता है, और पुन: रात्रि में लौटता है अन्धकार की ओर, लय की ओर, अभेद की ओर, एक की ओर, परमात्मा की ओर और प्रेम की ओर। दिन में कारण से कार्य की ओर जाता है और रात्रि में कार्य से कारण की ओर लौट आता है। इसी के दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय की द्योतक है। स्वाभाविक प्रेरणा से उस समय प्रेम-साधना, आत्मा निवेदन, एकात्मानुभूति सहज ही सुन्दर हो उठती है।
वैदिक साहित्य में व्रत का अर्थ है वेद बोधित इष्टप्रापक कर्म जिसके द्वारा भगवान का सानिध्य होता
है। महाशिवरात्रि व्रत में शिवपूजा, उपवास और जागरण प्रधान है।
अब देखें कि उपवास क्या है? जीवात्मा का शिव के समीप वास ही 'उपवास' कहा जाता है। साधारणत: निराहार रहने को ही उपवास कहते हैं।
एक अनय व्युत्पत्ति के अनुसार जो कुछ आहरण किया जाता है, सञ्चय किया जाता है, वही आहार है-
मन बुद्धि अथवा इन्द्रियों के द्वारा जो बाहर से भीतर आह्मवत, संगृहित होता है, उसी का नाम आहार है। स्थूल और सूक्ष्म-भेद से यह आहार साधारणत: दो प्रकार का है। मन आदि के द्वारा आह्मवत संस्कार सूक्ष्म आहार है और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों द्वारा गृहीत शब्द-स्पर्श-रुपादि स्थूल आहा है। 'उपवास' शब्द धातुमूलक अर्थ 'किसी के समीप रहना' है, सो, यहाँ उसका अर्थ 'शिव के समीप रहना' होना है। उपनिषदों में जिसे 'शान्त शिवमद्वेैतं यञ्चतुर्थे मन्यते' कहा गया है - उस शिव के समीप जाने से स्वभावत: ही जीव के मन-प्राणों की समस्त रंगी बत्तियाँ अपने आप ही बुझने लगती हैं। इसी से उपवास का अर्थ होता है आहार-निवृत्ति अर्थात सूक्ष्म, स्थूल एवं स्थूलतर आहार का अत्यन्त अभाव। शिवरात्रि-व्रत में 'उपवास' ही प्रधान अंग है।
जागरण - मुमुक्षु जीवात्मा के लिए जागरण आवश्यक है -
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतोमुने:।।
अत: सिद्ध है कि विषयासक्त जिसमें निद्रित है उसमें संयमी प्रबुद्ध है। अत: शिवरात्रि में जागरण करना आवश्यक है। जीवात्मा का आवरणविक्षेप हटाकर परमतत्व शिव के साथ एकीभूत होना ही वास्तविक
शिवपूजा है। यही जीवन का ध्येय है। योगशास्र के शब्दों में इन्द्रियों का प्रत्याहार, चित्तवृत्ति का निरोध और महाशिवरात्रि व्रत वास्तव में एक ही पदार्थ है।
लोकऽस्मिन द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।
चाहे शिव-पूजा ज्ञानयोग द्वारा कीजिए अथवा कर्मयोग द्वारा, भक्ति का सम्मिश्रण दोनों में रहेगा। ज्ञानप्रधान भक्ति अथवा कर्म प्रधान भक्ति द्वारा फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि व्रत करने से मुक्ति मिलेगी।
महा शिवरात्रि व्रत का उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा के साथ सहयोग ही है। समाधियोग में जब जीव और शिव एकत्र अवस्थित होते हैं वह अद्वयानुभूति का समय ही साधन-राज्य के अध्यात्म-शास्र की अमावस्या है। समष्टिभाव से प्रकृति में जब इस एकात्मानुभूति की लीला होती है उस समय व्यष्टिभाव से अपने अन्दर यह लीला स्वादन सहज हो जाता है। परन्तु एकान्त अभेद में उपासना हो तो नहीं सकती इसीलिए चतुर्दशी में जीव बहुत कुछ शिव में डूब जाता है परन्तु थोड़ी-सी भेद की रेखा शेष रह जाती है। वह शुभ मुहूर्त ही जीव का शिवोपासन का, शिवपूजा का पुण्य लग्न है। तत्पश्चात अमावस्या में जीव जब शिव में एक-बारगी डूब जाता है, भेद का लेश भी नहीं रह जाता, 'नेति-नेति' के साधन से पूर्ण समाधि में अद्वेैतानुभूति का चरमोत्कर्ष साधित होता है, तभी व्रत का पारण-पूर्णता सम्पन्न होती है।
'यत्र-यत्र मनोयाति ब्रह्मसणस्तत्र दर्शनम्' मनुष्य-शरीर के स्नायुजाल का गठन इस कल्पना का मूल
है। देह का उर्ध्वभा-मस्तिष्क ही इस वृक्ष का मूल है, मेरुदण्ड काण्ड है और हस्त-पादादि अङ्ग-प्रत्यङ्ग के रुप में इसकी अनेकों शाखा प्रशाखाये फैली हुई है। इस अपूर्व वृक्ष का मूल ऊर्ध्वदिशा में और शाखा-प्रशाखाएँ अधो दिशा में प्रसरित है।
उपासक-भेद में इस वृक्ष को कोई अश्रव्य कोई बिल्व, कोई कल्पतरु या कदम्ब कहा कहते हैं। कोई इसके मूल में सदा शिव को, कोई श्रीकृष्ण को कोई साक्षात नारायण को देखते हैं। विल्ववृक्ष के मूल में शिव का स्थान है। जीवात्मा ही व्याध्र है, इन्द्रिय-रुप तीरों के द्वारा विषयरुप पक्षियों का शिकार करना इसका कार्य है। इस प्राकृत जीवन का स्रोत जब रुद्र होता है, जब वह अपने समस्त कर्मफलों का भगवान को अपंण करना सीख जाता है, जब दे रुप विल्बवृक्ष के त्रिगुणरुप त्रिपत्र को गुणातीत शिव के मस्तक पर अपंण करता है, आसक्तिशून्य हो जाता है, जब 'पद्यपत्रमिवाम्भसा', अर्थात जल में पद्यपत्र के समान वह फिर कर्म के शुभाशुभ फलों का भागी नहीं होता।
महाशिवरात्रि व्रत परात्पर है। इसके अधिकारी समस्त प्राणी हैं। भारत वर्ष में जितने भी प्रकार के पूजा-पारण, व्रत-उपवास, होम-नियम प्रचलित है उनमें शिवरात्रि व्रत के समान महत्व एवं प्रचार अन्य किसी का नहीं है।
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