कुछ संगी साथी और आराध्य पत्रकार

मेरा यह पोस्ट उच्च उन संगी साथी और आराध्य पत्रकारों का स्मरण है जो मेरे या मेरे पिताजी के साथी रहे। वैसे मेरे पिताजी स्व. मधु सूदन वाजपेयी की पत्रकारिता की यात्रा देश की आज़ादी के समय से ही आरम्भ हो गयी थी और वो तमाम झंझावातों के बीच जीवन दीप बुझाने तक १० दिसम्बर १९९२ तक जारी रही। लेकिन चिंतन और मननशील स्वभाव तथा अल्पभाषी होने के कारण उनके मित्रों की संख्या नगण्य रही जो उन्हें और उनके स्वभाव को जानते थे वो उनके अपने हो जाते थे बाक़ी लोग दूर ही रहते थे। मुझे जहां से याद है वो घटना क्रम कानपुर से शुरू होता है। उस समय पिताजी कानपुर में दैनिक जागरण में थे। मै बहुत बच्चा था उस समय पत्रकारों की तनख्वाह बहुत ही कम होती थी। पिताजी के पास उनके एक मित्र अक्सर आते थे वह अध्यापक थे और कवि थे। एक और उनके मित्र थे जो उनके साथ दैनिक जागरण में थे नाम तो उनका याद नहीं ये याद है कि वो नंगे पैर चला करते थे। ऐसा सूना था कि गरीबी के चलते उन्होंने अपनी पहचान नंगे पैर वाले पंडितजी के रूप में बना ली। एक बार मै पिताजी के साथ ऑफिस भी गया। तब दैनिक जागरण के मालिक नरेंद्र मोहन जी ने मुझे गोद में उठाकर प्यार किया और कुछ ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें खेलने को दीं और अपनी कलम देकर कहा लो लिखो। फिर कुछ घटना क्रम इतना तेज चला कि हम अचानक कनखल चले गए बाबा के पास मेरे बाबा हिंदी पाणिनि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी थे जिन्हे सम्मान या प्यार में लोग दादा कहते थे। कनखल में पिताजी को भी प्यार से सब माधव भैया कहते थे। वहाँ पत्रकारों में रामस्वरूप फर्लिया जी और भाई सुनील पांडे जी की मुझे याद है। फर्लिया जी उस समय एक दर्जन से अधिक समाचार पत्रों के प्रतिनिधि थे। १९८० में हम लोग कानपुर आ गए पिताजी ने फिर से दैनिक जागरण ज्वाइन किया। एक बार फिर मोहन बाबू से मेरी मुलाक़ात हुई। उन्होंने माताजी को प्रणाम कर कहा भाभीजी मैंने भाई साहब को इतना समझाया था कि नौकरी मत छोडो लेकिन इन्होने मेरी बात नहीं मानी। खैर ठीक है कुछ करूंगा। उसी समय उन्होंने यह भी कहा था भाई साहब हमारे ऐसे साथी रहे जिनकी जेब में हरदम इस्तीफा रहता था। एक संस्मरण मुझे  नरेंद्र मोहन जी उर्फ़ मोहन बाबू के पिताजी पूरनचंद गुप्त का भी याद आ रहा है कि कितनी कड़ी मेहनत और मशक्कत से उन लोगों ने दैनिक जागरण जैसा विशाल वट वृक्ष तैयार किया और बचत का उनके लिए क्या महत्त्व था। उन दिनों पूरनचंद जी के पास एक ही अम्बेस्डर कार थी उसी से वह सर्वोदयनगर स्थित कार्यालय आया करते थे। एक दिन वो दोपहर में कहीं जाने को निकले तो देखा कार नहीं है। उनका पारा चढ़ गया उन्होंने ने गार्ड से पूछा कि कार कहाँ है पता चला कि कार घर खाना लेने गयी है। अभी वह कुछ और कहते कि कार आ गई और बाबूजी बरस पड़े और बचत का ऐसा पाठ पढ़ाया कि फिर कार ले जाने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। उन दिनों सत्य देव शर्मा, अखिलेश मिश्रा आदि दैनिक जागरण में ही थे। उस समय दैनिक जागरण की एक पत्रिका कंचनप्रभा भी निकलती थी जिसका प्रकाशन बाद में बंद हो गया। 
दैनिक जागरण में पिताजी का दूसरा कार्यकाल लखनऊ में शुरू हुआ। १९८० से १९८६ के दौरान मेरी तमाम वरिष्ठ पत्रकारों से मुलाक़ात हुई। जिसमे शायद राजीव शुक्ला भी एक थे जो आज केंद्रीय मंत्री हैं। राजीव जी ने उस वक्त कहा था कि किसी एक संस्थान में दो साल से ज्यादा नौकरी नहीं करनी चाहिए क्योंकि दो साल में व्यक्ति उस संस्थान द्वारा आंकी गयी अपनी क्षमता के अनुरूप हासिल कर लेता है इसके बाद सिर्फ सालाना वेतन वृद्धि ही रह जाती है। पिाजी की जुबानी उस दौरान कई स्थानीय सम्पादकों के बारे में भी सुना जिसमे बी के गुप्ता, अखिलेश मिश्रा, भगवत शरण, अविनाश बैस, गयाराम उपाध्याय, जीतेन्द्र मेहता जी, उपाध्याय सिंह हरिऔध के पौत्र डॉ. मुकुंद देव शर्मा, अशोक रजनीकर, इंदु भूषण वाजपेयी, सुनील दुबे आदि शामिल रहे।पिताजी के एक मित्र रामदत्त मिश्र अमृत प्रभात में मुख्य उप सम्पादक थे जो अक्सर घर आते थे। हमारा उनका पारिवारिक सम्बन्ध था। सम्पत कुमार मिश्रा का भी पारिवारिक सम्बन्ध था। 
 लखनऊ दैनिक जागरण में उस समय प्रदीप सिंह, डॉ सदाशिव द्विवेदी, वीरेन्द्र सक्सेना, ज्ञानेन्द्र सिंह, किशोर निगम, बसंत श्रीवास्तव, जगत वाजपेयी, आद्या प्रसाद सिंह, संजीव शुक्ला, अकु श्रीवास्तव, सुधांशु श्रीवास्तव, सुकीर्ति श्रीवास्तव, रविन्द्र श्रीवास्तव, शरद जोशी, विजय शंकर पंकज, प्रभाकर शुक्ल आदि के बारे में जाना। फिर जून १९८५ में विनोद शुक्ला का आगमन हुआ। यह लखनऊ दैनिक जागरण का टर्निग पाइंट था। यह वह समय था जब हैण्ड कम्पोज़िंग को विदाई देते हुए करीब डेढ़ सौ लोगों से इस्तीफे लिए गए। और नए कलेवर और नए अंदाज के दैनिक जागरण का उदय हुआ। विनोद शुक्ला के साथ उनकी कोर टीम का भी आगमन हुआ जिसमे आज से दिलीप शुक्ला, अमर सिंह, राजू मिश्रा आए। इसी बीच नयी भर्तियां भी हुईं जिनमे शेखर त्रिपाठी, बृजेश शुक्ला, स्वदेश कुमार आए मै भी इस बीच आया लेकिन रुका नहीं मेरा करियर दिसम्बर १९८६ से शुरू हुआ। मेरे साथ मनोज श्रीवास्तव, सुधीर तिवारी, अरुण प्रकाश त्रिपाठी, राजीव सक्सेना, सरिता सिंह, कंचन सिन्हा, अनिल तिवारी, आदि का आगमन हुआ। दैनिक जागरण में मै १९९४ अक्टूबर तक रहा इस दौरान यहाँ कई अन्य लोग भी संपर्क में आए जिनमे जावेद अंसारी, विष्णु प्रकाश त्रिपाठी, सुदेश गौड़, के एन पांडे, एस पी सिंह, दिनेश दीनू , राजनाथ सिंह सूर्य, जय प्रकाश शाही, रामेश्वर पांडे, उपेन्द्र पाण्डेय, निकुंज किशोर मिश्र, राजेश नारायण सिंह, प्रेम सिंह, नदीम, शैंकी दत्ता, सुदेष्णा, सद्गुरु शरण अवस्थी, रमा शरण अवस्थी, राजेन्द्र पंत, दीपक शर्मा, प्रदीप मिश्रा, हेमंत तिवारी, अरुण कानपुरी आदि। कानपुर जागरण में उस समय बी के शर्मा, गुलाब श्रीवास्तव, रामकृष्ण गुप्त, भूपेंद्र तिवारी, प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव, रोमी  जी से अक्सर ख़बरों के सम्बन्ध में बात होती रहती थी। क्रमशः 

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