हरिद्वार जो मेरे दिल में बस गया








सन १९७४ मेरी जिंदगी में निर्णायक मोड़ ले कर आया। मेरी अवस्था उस समय लगभग सात वर्ष रही होगी। मेरी दादी के निधन के बाद बाबा किशोरी दास वाजपेयी अपनी पुत्रवधु मेरी माताजी, दो छोटी बहनों और मुझे लेकर हरिद्वार चले गए। पिताजी और भैया कानपुर में रह गए। १९७४ से १९७६ तक का समय कभी हरिद्वार कभी कानपुर इसी दौड़ धुप में कट गया। मेरी यात्राएं खूब हुईं। बाबा के साथ रहने का एक कष्ट था सुबह जल्दी उठना पड़ता था और दूसरा कष्ट था सर पर हर महीने उस्तरा चलवाना पड़ता था। लेकिन हरिद्वार की यात्रा में मै पहली बार अपनी याद में ट्रेन में बैठा वह भी प्रथम श्रेणी के कोच में। कानपुर से हरिद्वार तक की पहली लम्बी यात्रा की। हरिद्वार में स्टेशन से घर जाने के लिए ताँगे पर बैठा। कनखल के होली मोहल्ला में बड़े अखाड़े की इमारत जिसे चक्की लगी होने के कारण इंजन वाली हवेली कहा जाता था उसके प्रथम तल पर बारह रुपये महीने के किराए का घर था। जिसमे लाइन से महापुरुषों के चित्र लगे थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सिरहाने थे तो महामना मदन मोहन मालवीय जी लिखने पढ़ने की मेज पर ठीक सामने। छज्जे पर बीच में मुख्य दरवाजा था  जिसके बगल में वाजपेयी लिखा था। दरवाजे के आकार की ही दो खिड़कियाँ थीं जिसमे सरिये लगे हुए थे। सुबह उठते ही सामने धूप घुसी आँख खुली तो सामने शिवालिक श्रृंखला की पहाड़ियों के दर्शन हुए जिसमे एक कोने पर मनसा देवी थीं तो दुसरे कोने पर चण्डी देवी। घर के पास ही दक्ष प्रजापति का मंदिर था। हरिद्वार की सैर मैंने 1976 में तब शुरू की जब पिताजी बाबा के  कहने पर अपनी पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर बाबा के साथ रहने आ गए। मेरा दाखिला भी सनातन धर्म हायर सेकंडरी स्कूल में करा दिया गया जहां स्व बसंत कुमार पाण्डे प्रधानाचार्य थे। और कृष्णद्वैपायन शास्त्री मेरे प्रिय शिक्षक थे। अम्मा पिताजी के साथ मैंने दक्ष प्रजापति का मंदिर, माँ आनंदमयी आश्रम, राजघाट, सत्ती घाट, अवधूत मंडल, रामदेव की कुटिया, सूरतगिरी का बँगला जहां वैद्य नाथ आयुर्वेद भवन के मालिक वैद्य रामनारायण शर्मा जी आकर गरमी भर रुका करते थे। लल्तारों का पुल, मनसा देवी, हरकी पैड़ी, भीम गोडा, खड़खड़ी, बड़े हनुमानजी का मंदिर, पावनधाम, सप्तऋषी आश्रम आदि खूब घूमा। अक्सर हम लोग गंगा के किनारे किनारे टहलते हुए सप्त धारा तक टहल आते थे। बाद में मैंने चंडी देवी के भी दर्शन किये। बाद में माताजी की बीमारी के चलते आर्थिक संकट बढ़ने पर बाबा की सहमति से पिताजी को पुनः नौकरी करनी पड़ी और 1981 में बाबा का निधन हो जाने पर जब लोग घर के अलाटमेंट के लिये अर्जियां लगाने लगे।  बंद घर की हिफाजत मुश्किल हो गयी और वहाँ रहने की स्थिति भी नही थी तो बहुत भारी मन से पिताजी को कनखल वाला घर छोड़ना पड़ा क्योंकि मकान मालिक और अखाड़े के महंत नही चाहते थे कि उनकी सम्पति स्मारक के नाम पर फंस जाए। कनखल चौक में बाबा की प्रतिमा लगी है और उनका साहित्य वाणी प्रकाशन प्रकाशित कर हिन्दी जगत की सेवा कर रहा है। 

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