मेरा बचपन
बचपन हर व्यक्ति का होता है। और यह बचपन ही उसका अपना होता है। बचपन शुरू कहाँ से होता है और यह होता क्या है और यह किस उम्र तक होता है जब हम बचपन की बात करते हैं तो ये सवाल उठने लाजमी होते हैं। मेरे विचार से बचपन की शुरुआत वहाँ से होती है जहां से एक बच्चे की स्मृतियाँ बननी शुरू होती हैं। और एक ग्रो करता बच्चा उन अच्छी या बुरी स्मृतियों को कैद करते हुए जिस तरह का बर्ताव करता है एक निश्छल मन से जिसमे कभी वो एग्रेसिव होता है तो कभी उन स्मृतियों में अपनी कल्पना के रंग भरकर एक्ट करता है बिना किसी नतीजे की चिंता किये चाहे किसी को बुरा लगे या भला। चाहे कोई हँसे या बिगड़े यदि उसे आनंद आ रहा है तो वह करेगा। मार पड़े या डांट। उसे मज़ा आना चाहिए। कोई बंधन नहीं और है भी तो मानने को मजबूर नहीं। कुछ ऐसा ही होता है बचपन। मुझे भी जो याद है जहां से याद है उसमे दिनों या वर्षों का अंतर तो पता नहीं कुछ स्मृत्यां हैं जो रह रह कर कौंधती हैं। एक स्मृति है सड़क पर बेहोश होकर गिरी मेरी एनीमिक और गर्भवती माँ, फिर हैलट अस्प्ताल के वार्ड के बाहर लिफ्ट के पास बरामदे में बेड पर लेती पीलिया की शिकार माँ। मेरी उम्र उस वक्त पांच साल के लगभग रही होगी। दूसरी है कानपुर का लेनिन पार्क जहां मै बेलौस भागता था कभी तितलियों के पीछे तो कभी हवाओं के साथ। वहीं पार्क के पास चाचीजी का घर जहां मै बहनो की थाली से खाना उठा उठा कर भागता था वो अलग से खाने को देतीं थीं तो मै नहीं खाता था। पार्क के पास ही मेरी बुआ का घर था जहां उनके जेठ जिठानी और देवर रहते थे। मै अपनी बुआ की जिठानी को सगी बुआ मानता था। उनके घर में नीचे एक परिवार रहता था जिसमे मै बुजुर्ग बाबा उनकी पत्नी को नन्नो और बिटिया को भौजी कहता था। यह रिश्ता बहुत अटपटा था लेकिन यह मेरा बनाया रिश्ता था। बुआ के बच्चों के साथ खेलना हुडदंग करना रोज का शगल था। एक और स्मरण आता है मेरी माँ एक स्कूल में पढ़ाती थीं मै वहाँ एक क्लास में बैठता था तब एक टीचर मेरे पेट और पीठ में घूंसे बरसा कर गोद में लेकर जातीं थीं कि अरे क्या हो गया क्यों रो रहे हो। तब एक पैसॆ में पांच कम्पट (टाफी ) मिला करती थी, दो पैसे में मोमफली मिला करती थी। फिर कुछ दिन मै नगर पालिका के टाट पट्टी वाले एक स्कूल में गया जहां रमै काका की कविता का पाठ सुना जिसका मुखड़ा कुछ यूँ था हम पहिल पहिल नौकरी कीन्ह हम फट्ट क्लास मा बइठ गइन..। यहाँ कुछ विवाद के बाद स्कूल कुछ दिन को बंद हो गया तब एक दुसरे स्कूल में गया इस स्कूल में गरीब वर्ग के बच्चे ज्यादा थे। वहाँ एक टीचर अक्सर मुझे चिढ़ाया करते थे कि बाजपेयी बाजपेयी बड़े चिकन्नी माछी मार करे दुर्घिन्नी। कुछ दिन बाद अचानक मेरा स्कूल छूट गया। पता चला मेरी दादी बीमार हैं। मै पहली बार अपनी याद में बस में बैठा। और फतेहपुर बुआ घर गया। दादी को कैंसर था कांनपुर में कुछ दिन बाद उनका निधन हो गया और बाबा के साथ हम लोग कनखल हरिद्वार चले गए। पिताजी और भैया कांनपुर में रह गए भैया उस समय बी एस सी करने के बाद कानपुर आई आई टी से मैथ्स में एमएससी कर रहे थे। यह अपने आप में एक इतिहास है कि एक होनहार छात्र के लिए कानपुर आई आई टी ने अपने नियम बदल दिए और वह घर से साइकिल चला कर १७ किमी दूर पढ़ने जाते थे। क्योंकि उन्होंने कानपुर आई आई टी एनट्रेन्स में टॉप किया था। लेकिन बचपन की खट्टीमीठी स्मृतियों का मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा और शायद आज भी है।
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