आधुनिकता की खरपतवार में लुप्त होती काशी की ऐतिहासिकता
शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। काशी के महत्व का अंदाजा सिर्फ एक लाइन के इस मन्त्र से लगाया जा सकता है। और विश्वनाथजी की अतिश्रेष्ठनगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है। काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं-इदं मम प्रियंक्षेत्रं पञ्चक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतितपावनीकाशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिगसनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिगपांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पञ्चक्रोशात्मकं लिङ्गंज्योतिरूपंसनातनम्।ज्ञानरूपा पञ्चक्रोशात् मकयह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पञ्चक्रोशपरिमिता। पद्मपुराणमें लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजीने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया। लेकिन विश्व की प्राचीनतम नगरियों में शुमार काशी आज अपनी पहचान खो रही है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री व भाजपा नेता ओमप्रकाश सिंह ने भी एक अवसर पर कहा कि काशी के सामने पौराणिक और सांस्कृतिक पहचान का संकट खड़ा है। बनारसीपन और जीवन पद्धति लुप्त होती जा रही है। इसे बचाने के लिए इस नगर को भू माफिया के चंगुल से निकालकर नया टाउनशिप प्लान तैयार करना होगा। वजह काशी से बहुत सी परम्पराएं लुप्त हो गई हैं। संगीत, साहित्य और अदब में कमी आ रही है। अब काशी से धर्म की प्रतिष्ठा भी ख़त्म हो रही है। बनारसी मस्ती और फक्कड़पन ख़त्म हो रहा है। देस के अन्य छोटे और मझोले शहरों की तरह काशी की पहचान भी फकत एक शहर होने की दौड़ में गुम हो रही है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है क्या यहाँ के बाशिंदे ? या स्थानीय या प्रदेश या देश के हुक्मरान ? यह सवाल जुदा है। इसके कारण क्या हैं यह एक अलग सवाल है। इस बारे में सोचा क्यों नहीं गया ? ये एक अलग सवाल है। दरअसल काशी की पहचान को खा रही है इंसानी स्वार्थ की दीमक। और इस दीमक की बांबी में कैद यहाँ के बाशिंदों को कभी यह ना तो दिखायी दिया ना समझ में आया हमारा स्वार्थ कहीं हमें अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने पर मजबूर तो नहीं कर रहा है। क्योंकि बाहर से जो भी यहाँ आ रहा है उसे विश्वेश्वर (विश्वनाथ) या काल भैरव या सारनाथ तक पहुँचाने का साफ़ रास्ता देने की जिम्मेदारी किसकी है। जब देश के अन्य भागों या विश्व के किसी भाग से कोई यहाँ आएगा तो उसे अपने गंतव्य तक पहुचने का रास्ता भी तो चाहिये होगा। हाँ अगर काशी आने वालों को मुर्दा मान लिया गया है फिर तो कोई बात नहीं क्योंकि मुर्दे शिकायत नहीं करते।
यहाँ का नज़ारा कुछ ऐसा है। काशी बुला रही है लेकिन चलने के लिए सड़क नहीं है। अतिक्रमण की शिकार गलियों में से होकर गुजरने के लिये जगह नहीं है। मंगल या चाँद पर पहुंचना आसान है पर काशी में किसी भी गनतय तक पहुंचना मुश्किल बहुत मुश्किल है। अफ़सोस हम हजार क्या कहें,तीन चार सौ साल पुरानी काशी की पहचान भी अक्षुण्ण नहीं रख सके। धन के भोंडे प्रदर्शन का केंद्र बन गई है। हम ये समझ ही ना सके कि काशी को पेरिस या न्यू यॉर्क बना देंगे तो कौन यहाँ आएगा। बनारस या काशी की पहचान तो इसकी प्राचीनता में है। विद्वता, संगीत, साहित्य, अदब, परम्परा, धर्म की प्रतिष्ठा, इसकी प्राचीनता का बोध कराने वाले उद्योग धंधे ही जब यहाँ नहीं होंगे तो सौ बार गरज हो तो काशी आओ या जिसे बाबा बुलाना चाहेंगे वही यहाँ आ पाएगा सोच सोच कर खुश होते रहिये। फिरतो मरने के लिए काशी आने वालों से खुश हो लीजिये या मुक्ति की चाह में काशी आने वाली लाशों से खुश हो लें। अफ़सोस कि हम काशी की प्राचीनता की मार्केटिंग एक रणनीति बनाकर नहीं कर सके। काशी जिसे हम विश्व में पर्यटन के एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित कर सकते थे हमने वह भी नही किया। काशी से एक बड़ी आबादी को अन्यत्र ले जाने की जरूरत है। पुरानी इमारतों का मूल स्वरुप बरकरार रखे जाने की जरूरत है। ऑटो रिक्शा को शहर से बाहर करने की जरूरत है। बाहरी वाहनो को शहर से बाहर ही रोके जाने की जरूरत है। लेकिन इतना सब कुछ मुमकिन नहीं है और काशी को बचाना सम्भव नहीं है।
Comments
Post a Comment