राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और वर्तमान सन्दर्भों में उसकी राजनीतिक प्रासंगिकता


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा संगठन है जो आजादी के पहले से सक्रिय है। आजादी मिलने से पहले यह पूर्णतः गैर राजनीतिक संगठन था लेकिन आजादी के बाद खुद को पूर्णतः गैर राजनीतिक रखते हुए परदे के पीछे से देश की बागडोर थामने की ललक के बताकर आलोचकों ने जनसंघ को इसके आनुषांगिक संगठन के रूप में देखा बाद में इसी राजनीतिक संगठन से निकले लोगों ने भारतीय जनता पार्टी बनायी। तब तक संघ भी खुलकर खेलने के मूड में आ गया था और संघ के रण नीतिकारों ने ८० के दशक के राम जन्मभूमि आंदोलन के जरिये भारतीय जनता पार्टी में जान डाल दी।
यहाँ एक बात गौरतलब है कि देश को आजाद कराने में प्रत्यक्षतः इस संगठन का कोई योगदान नहीं था लेकिन राष्ट्र निर्माण में इसकी भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता। पराधीन भारत में बच्चों में संस्कार डालना एक बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य था। बच्चों के शरीर सौष्ठव और खेल खेल में उन्हें देश के इतिहास भूगोल से परिचित कराने और उनमे देश भक्ति का जज्बा भरने का काम इस संगठन ने बखूबी किया देश के एक बड़े भू भाग पर फैले इस संगठन की जड़ें कितनी मजबूत थीं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि अधिकाँश लोग ऐसे हुआ करते थे जो कभी ना कभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा में गये थे। संघ के रण नीतिकारों को यह लगा कि जो वैचारिक माहौल देकर संघ अपने कार्यकर्ताओं को तैयार करता आ रहा है उसका परीक्षण कैसे हो इसकी प्रयोगशाला बनी अयोध्या और राम जन्मभूमि आंदोलन। लेकिन इस आंदोलन के बाद जब सत्ता हाथ में आ गई तब भारतीय जनता पार्टी ने खुद इस आंदोलन से किनारा कर लिया और कांग्रेस की बी टीम बनकर खेलने लगी। और जनता ने इस बी टीम को खारिज करके फिर ए टीम को मौक़ा दिया। साम्प्रदाइकता फैलाने उसे बढ़ावा देने के आरोपों से किनारा करते हुए भाजपा और संघ ने धीरे धीरे मंदिर मुद्दे से ही किनारा कर लिया। अब सवाल था हिंदुत्व की छवि भी रह जाए और मुद्दा भी बदल जाए तो ऐसे में गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी संघ की पसंद बने और मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज आडवाणी की पसंद बने बाजी संघ के हाथ लगी मोदी लीड कर गए लेकिन यह भी स्पष्ट हो गया कि अन्य दलों की तरह भाजपा एक दल नहीं। यहाँ संघ ही सब कुछ है। हालांकि अटलजी ने संघ को हाशिये पर समेटा था लेकिन उनके नेपथ्य में जाने के बाद आडवाणी की चली नहीं और संघ हावी होता गया।
बीसवीं सदी की शुरुआत से अब तक चौदह सालों में संघ की भूमिका भाजपा की सर्वोच्च रण नीति कार बनकर रह गयी यहाँ तक की पार्टी का अध्यक्ष कौन हो कौन चुनाव लड़े या ना लड़े इसमें भी संघ का दखल चलने लगा। हालांकि इस दरम्यान संघ की शाखाएं कितना बढ़ीं स्वयंसेवक कितना बढे इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। वर्त्तमान में भाजपा पर संघ की छाया साफ़ दिखायी दे रही है। लेकिन बदलते वक्त के साथ भाजपा के शीर्ष नेता मुखर होने लगे हैं और संघ की मेन लाइन खाली करने की नसीहत को खारिज करते दिख रहे हैं। ऐसा होने के पीछे मुख्य कारण संघ का घटता ताकत है। उसकी सोच की अस्पष्टता है। मंदिर मुद्दे से बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा सकी भाजपा को अब संघ की सलाह में खामी नज़र आने लगी है। हालांकि ये काम आसान नहीं है। ये तो वक्त बताएगा कि भाजपा का बुजुर्ग हो चला शीर्ष नेतृत्व कितना हाशिये पर सरक पाता है। भाजपा के चुनाव लड़ने पर आमादा नेता संघ के दबाव में पीछे हटे तो संघ का रिमोट संचालक चेहरा उजागर होगा और यदि वो चुनाव लड़े तो संघ के लिए शर्मनाक होगा।
वक्त का तकाजा यही है कि संघ भाजपा की लगाम खोलकर खुद को तटस्थ करते हुए संगठन के विस्तार में खुद को झोंक दे क्योंकि  आज ऐसा नहीं है संघ की शाखाएं नहीं के बराबर रह गयी हैं बच्चे और युवा इस संगठन से नहीं के बराबर जुड़ रहे हैं। फिर भी पिछले कई सालों से ऐसा लग रहा है कि संघ की दिलचस्पी अब अपने मूल काम में नहीं रह गयी है। वस्तुतः सामाजिक और आर्थिक बदलाव के साथ यह संगठन खुद को बदल नहीं सका और ८० के दशक के राम जन्मभूमि आंदोलन के चलते जब असमय ही भाजपा के सत्ता हाथ लगी तो यह संगठन अर्थात भाजपा खुद इसके लिए तैयार नहीं थी और संघ ने इसे अपनी रणनीति की कामयाबी माना। लेकिन हाल के दिनों की लम्बी उठापटक के बाद काशी प्रवास के दौरान संघ प्रमुख का यह कहना काफी मायने रखता है कि पुराने एजेंडे पर लौटे संघ और शाखाओं को फिर से गुलजार करने पर लगाए ध्यान। 

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