ये कैसी धार्मिकता ?



ऊपर दिए गए दोनों चित्र काशी के श्मशान घाट के हैं। हम हिन्दू परम्परा के अनुसार मोक्ष के लिए अपने प्रियजनों की अंत्येष्टि यहाँ करके उनके स्वर्ग पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। प्रतिदिन यहाँ तीन चार सौ शवों की अंत्येष्टि होती है। और जली अधजली लाशों को गंगा में ठेल दिया जाता है। और अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर बंधु बांधव व परिवारीजन अपने घर लौट जाते हैं। कोई पलट कर ये देखने नहीं आता कि अपने जिस परिजन को हमने विदा किया था उसकी गंगा में बहाई गई अधजली काया का क्या हुआ। दृश्य जब बोल रहा हो तो शब्दों में उसे क्या लिखा जाए। अपने और अपनों के मोक्ष की चाह में हमें ना तो गंगा से मोह रह गया है ना दिवंगत हो चुके अपने परिजनों से। प्रतिदिन चिताओं की टनों राख गंगा में बहाई जाती है। सैकड़ों जली अधजली लाशें गंगा में बहा कर मोक्ष की कामना की जाती है। लेकिन गंगा का क्या हो रहा है कोई नहीं सोच रहा। जो मर चुके उनकी पार्थिव देह का क्या हो रहा है घर लौटने के बाद शायद कोई नहीं सोचता वरना इतनी निर्मम कोई संतान नहीं हो सकती कि प्रिय की देह के अवशेष जानवर नोचें।
क्या बेहतर उपाय यह नहीं होगा कि हम काशी में विद्युत् शवदाह गृह में अंत्येष्टि कर भस्म गंगा में बहाएं। इससे पर्यावरण भी बचेगा गंगा भी बचेगी प्रियजनों की पार्थिवदेह की सद्गति भी होगी। 

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