खो गया बचपन -२
बचपन की यादें बड़ी रोचक होती हैं। इसमें सपने होते हैं, कल्पनाओं की ऊंची उड़ानें होती हैं। खुशियां होती हैं उल्लास होता है कुछ भी करगुजरने की लालसा होती है। याद आते पढ़ने जाते समय बैठने के लिए अपना बोरा और पट्टी लेकर जाना। स्कूल में दो इकम दो, दो दूना चार समवेत स्वरों में पहाड़ा याद करना। पटिया पर कालिख से पोतना और फिर घोटा लगाना। सरकंडे की कलम बनाकर लिखना। फिर होल्डर से स्याही में डुबो कर लिखना। थोड़ा और बड़े हुए तो फाउंटेन पेन से लिखना शुरू किया स्कूल जाने वाले हर बच्चे की उंगलियां स्याही से रंगी रहती थीं लेकिन मजाल क्या कि कापी पर स्याही फ़ैल जाए। जब बाल पेन आने शुरू हुए तो उस समय अध्यापकों द्वारा डाट पेन से लिखने से रोका जाता था कि राइटिंग बिगड़ जाएगी। परीक्षा में प्रश्नपत्र पर लिखा रहता था डाट पेन से लिखने पर नंबर कट जाएंगे। अब तो बच्चे जानते ही नहीं कि निब वाले पेन कैसे होते थे और उसमे भी इंग्लिश और हिंदी लिखने को अलग अलग निब आती थी। कुछ दिन की बात और है हैम लिखना भी भूल जाएंगे याद रहेगा तो सिर्फ कम्प्यूटर पर उंगलियां चलाकर हिंदी या अंग्रेजी लिखना और फिर रोमन में हिंदी लिखना। ये जो देवनागरी लिपि है ये भी इतिहास में दफ़न हो जाएगी।
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