मेरी हिंदी की पढाई घर की पाठशाला में

जैसा कि मैने अपने पिछले ब्लॉग्स में भी लिखा है कि बचपन में मेरी  पढाई व्यवधानों की शिकार रही और नियमित स्कूली शिक्षा प्रभावित रही। ऐसे में पहली पाठशाला घर बना और पहली गुरु मेरी अम्मा बनी और दुसरे मेरे बाबा , फिर पिताजी। उन्होंने मुझे घर पर ही पढ़ाते हुए कक्षाएं फंदाना शुरू किया और 1976 में हरिद्वार पहुचने पर बाबा के प्रभाव से मेरा सीधे कक्षा 6 में दाखिला हो गया। मेरे बाबा हिन्दी के प्रकांड विद्वान् हिंदी पाणिनि आचार्य किशोरी दास वाजपेयी थे। स्कूल में ज्यादातर हरिद्वार के पंडों और बनियों के बच्चे थे। बाबा जो कि हिंदी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे उन्होंने हरिद्वार पहुचते ही मेरा और मेरी दो छोटी बहनों का मुंडन करा दिया था अब स्कूल में मै बच्चो के बीच खिलौना बन गया। सारे शरारती बच्चों ने टिपियाना शुरू किया। शिक्षक भी मेरी शिकायत नहीं सुनते। बाबा से बताया तो बोले बता कौन मारता है मै अभी स्कूल से उसका नाम कटवाता हूँ। माँ फिर मददगार बनी और कैसे निपटूं ये युक्ति बतायी। खैर मैंने भी उनकी एकता को तोड़कर अपना ग्रुप बनाया। हरिद्वार में भाषाई देशजपना ज्यादा था और तू, तेरा वारे धोरे जैसे शब्दो का प्रयोग बहुतायत से होता है। माँ ने बचपन से खडी बोली सिखाई थी। मुझे उस उम्र में देशज और क्षेत्रीय बोलियों की जानकारी भी नही थी। मुझे सख्त निर्देश थे कि किसी की नक़ल न करूँ। भले ही कोई देसी बोली में बात कर रहा हो जवाब खडी बोली में ही देना है। वह अक्सर कहती थीं कि दूसरों की नक़ल करके अपनी भाषा मत बिगाड़ो। उधर बाबा ने मुझे घर में पढ़ाना शुरू किया। वह मुझे हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। उस उम्र में मै उनसे क्या पढता और क्या उनको समझ पाता इस कारण पढ़ाई कम और पिटाई ज्यादा होती थी। कभी वह रूप सुनते कभी संधि समास कभी मेंरे कारक ज्ञान की परीक्षा होती। वह पिटाई करते थे और मै चुप चाप मार खाता था कभी कम कभी ज्यादा। बाबा को ये लगा कि शायद मुझे लगता नहीं है इस लिए खामोश रह कर मार खाता हूँ तो एक दिन उन्होंने अपने गाल पर खुद थप्पड़ मारकर देखा। इसके बाद माँ से बोले बहु मै इसे मारता था और यह न तो रोता था और न उफ़ करता था तो मुझे लगा इसे लगता नहीं है लेकिन आज मैंने देखा लगता तो है इसलिए अब मै इसे नहीं पढ़ाउंगा जैसे सब बच्चे पढ़ते हैं ये भी पढ़ जाएगा। मुझे उस समय अफ़सोस नहीं हुआ बल्कि खुशी हुई कि चलो जान छूटी। क्यूंकि कारक सुनाने में मै अक्सर लड़खड़ा जाता था कि कर्ता ने , कर्म को , करण से या द्वारा, सम्प्रदान केलिए , अपादान अलग होने के अर्थ में से , समबन्ध का के की , रा रे री , ना ने नी , अधिकरण में या पर , सम्बोधन हे.। बाबा के पास अक्सर विद्वान् लोग चर्चा के लिए आते थे और बहस या बात चीत के दौरान मेरे कारक ज्ञान की परीक्षा हुआ करती थी। उन्होंने उस समय मुझे पढ़ाते हुए हिन्दी व्याकरण का मूल मन्त्र बताते हुए कहा था कि हिंदी में जो बोला जाता है वही लिखा जाता है। और हिंदी में क्रिया में ये के बजाय ए और यी के बजाय ई का प्रयोग परम शुद्ध है। बहुत और बहुतों या अनेक और अनेकों दोनों प्रयोग सही हैं। विदेशी शब्दों का अनुवाद कर उसे हिंदी को क्लिष्ट बनाने के बजाय उन्हें यथावत ले लेना चाहिए क्योंकि हिंदी में ग्रहण शीलता का व्यापक गुण है। हिंदी में अक्षर के नीचे की बिंदी नही होती है। शब्द के बीच में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। उस समय ये सब बातें मेरी समझ में नहीं आतीं थीं लेकिन कक्षा छह में बाबा की पढ़ाई गई हिंदी संस्कृत मुझे कालेज से विश्व विद्यालय तक और फिर १९८६ से सक्रिय पत्रकारिता में प्रवेश के बाद अब तक काम आ रही है।

Comments

  1. Aapki prastuti bahut hi gyanwardhak hai! Saajha karne k liye abhari hun! Saadar naman! :)

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  2. अच्छा लगा संस्मरण ... हिंदी भाषा पूर्ण भाषा है ...

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  3. उत्तर प्रदेश में 1990 से 1994 के बीच सरकारी स्कूल में प्राइमरी कक्षा (1 से 5) में पढाई जाने वाली हिंदी की ज्ञान भारती किताब का प्रकाशन कहाँ से होता था या फिर अभी ये किताब कहाँ से मिल सकती है. अगर कोई सुचना हो तो कृपया बताने का कष्ट करें.Mobile No - 09305135087 & Email ID - ram88kishor@gmail.com

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