मुश्किलों का सफ़र

हरिद्वार में कनखल में बहुत तेजी से बचपन की दहलीज लांघ कर मै किशोरवय में प्रवेश कर रहा था लेकिन कहीं कुछ ऐसा था जो मन को बहुत अधिक प्रभावित करता था जिसकी परिणिति मेरे गुमसुम रहने व कनखल के श्मशान घाट का माहौल अच्छा लगने के रूप में हुई। शाम के समय की निस्तब्धता जब गंगा के पानी का कलकल और हवा से कभी धधकती तो कभी धीमी पड़ती चिता की आग चटकती लकड़ियां और भैरव मंदिर में उठता धुप का धुंआ और इसके बीच कहीं खोया हुआ मै। शुरू में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया फिर साथ खेलने वालों को पता चला तो थोड़ा डरे। किसी ने घर जाकर शिकायत कर दी पिताजी श्मशान घाट पहुंच गए और लिवा लाए। बहुत समझाया गया। पता नहीं मैंने कितना समझा लेकिन जो कुछ भी घर में तनाव था उसे मेरी माताजी नहीं झेल पायीं और बीमार पड़ गयीं हरिद्वार में जब सब डाक्टरों ने जवाब दे दिया तो बड़े शहर के नाम पर अम्मा को लेकर कानपुर आए। कानपुर में मेरे भैया बैंक में अधिकारी थे और बुआ की ससुराल थी। यहाँ हालात कुछ ऐसे बने कि अम्मा के लम्बे इलाज की सम्भावना के बीच हमें कानपुर में रुकना पड़ा। मेरी उम्र उस समय तेरह चौदह साल की रही होगी। भैया ने संकट की उस घड़ी में बखूबी घर सम्हाला और सबका ध्यान रखा। तमाम जांच कराने के बाद डाक्टरों ने बताया कि अम्मा की बीमारी के मूल में मधुमेह, उच्च रक्तचाप व ह्रदय रोग है। इलाज शुरू हुआ कुछ दिन बाद हम लखनऊ आ गए। यहाँ मेरा दसवीं में दाखिला हुआ। अम्मा हर महीने डेढ़ महीने में तीन चार दिन के लिए आई सी यू में भर्ती होती थीं। डाक्टर कभी उन्हें एंजाइना का दर्द बताते कभी शुगर बढ़ा होना मै रात में उनके साथ अस्पताल में रहता था। शुरू शुरू में बड़ा अजीब लगा जब माँ को मशीनो से बाँध दिया गया। वहाँ एक बार फिर मैंने मौत को बहुत करीब से देखा। दरसल दिल की बीमारी कुछ एसी ही होती है कि आदमी बोलते बोलते कब चल देगा कहा नहीं जा सकता। घर की तमाम जिम्मेदारियां मुझ पर आ गयीं थीं छोटी बहनों का ध्यान रखना उन्हें सम्हालना तैयार कर स्कूल भेजना, फिर चाय बनाने से लेकर खाना बनाना और बर्तन मांजना कपडे धोना के साथ ही वक्त निकाल कर पढ़ना। अस्पताल में कभी माँ को खाना खिलाते वक्त तो कभी रोटी का पहला निवाला मुह में डालते ही किसी को जिंदगी की आखिरी हिचकी आ जाती या खून की कै हो जाती तो मन घिना जाता लेकिन माँ को छोड़ नहीं सकता और खुद की ऊर्जा बरकरार रखने के लिए बेशर्म बनकर खाता रहता बगल में करूँ क्रंदन को नज़रअंदाज कर देता। तब यह भी समझ में आया कि कैसे एक मरीज के दम तोड़ने के बाद डाक्टर हाथ धोकर खाना खाने बैठ जाते हैं। क्योंकि वह कितने मरीजों को जिंदगी देने के लिए खाना छोड़ चुके हैं यह कोई नहीं देखता। हर दो तीन महीने में यह क्रम दोहराकर मै भी आदती हो गया। कभी माँ के पास दुबक कर सो जाता तो कभी किसी मरीज के डिस्चार्ज होने या गुजर जाने पर खाली हुए बिस्तर पर लुढक जाता। 

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