वो बुरा दौर
मै अपनी वो आपबीती शेयर करता हूँ जो किसी न किसी रूप में हरेक के साथ घटित होती रहती हैं पर हम उसको कितना और किस रूप में महसूस करते हैं यह अहम होता है।
हरिद्वार में रहते हुए हमें तीन साल बीत चुके थे। मै कक्षा नौ में विज्ञान वर्ग से पढ़ रहा था। उस समय मेरा स्कूल सुबह १० बजे से शाम ४ बजे तक का था। एक दिन मै दोपहर में खाना खाने घर आया तो मेरे भैया के दोस्त राजेश ओबरॉय घर आये हुए थे वह कानपुर आई आई टी से इंजीनियरिंग कर रहे थे उनका कद पांच फुट से थोड़ा कम था। मेरा कद साढ़े पांच फुट से थोड़ा ज्यादा था। वह यूँ ही मुझे देख कर बोले अरे रामू तू मुझसे लंबा हो गया है क्या फिर सर पर हाथ मारकर बोले थोड़ा कम हो ज्यादा हंसी मजाक के बीच मै खाना खा कर स्कूल चला गया। मेरा स्कूल कनखल में सत्तीघाट जाने वाले रास्ते पर सत्ती घाट से करीब १०० मीटर पहले था जो कि दरभंगा नरेश का किला था और काफी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। जिसके दरबार हाल के आधे हिस्से में सात आठ सौ बच्चे आ जाते थे। और चालीस के लगभग कक्ष थे जिनमे क्लासें लगती थीं। पीछे के हिस्से में विशाल मैदान था जिसके पूरब में गंगा बहती थीं। लेकिन गंगा और मैदान के बीच में खंडहर थे। जहां कभी कभार बच्चे चले जाते थे वहीँ प्राचीन शिव मंदिर भी था।खैर घर से तो मै अच्छा भला गया था लौटा तो बुखार था। मौसमी हरारत समझ कर उस समय तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया रात में तेज बुखार की बेहोशी में बड़बड़ाना शुरू किया तो घरवालों का ध्यान गया। दवा जो उपलब्ध थी दी गयी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अगले दिन दौरे जैसे पड़ने लगे सब परेशान हम लोगों के पारिवारिक डॉक्टर संतराम आए मुझे देखा और जैसे ही वह गए मुझे फिर दौरा पड़ गया। बाबा को लगा मै नाटक कर रहा हूँ उन्होंने डंडा उठा लिया माँ ने उन्हें रोका और समझाया। तीसरे दिन डॉक्टर संतराम जी के सामने दौरा पड़ा। उन्होंने बीपी चेक किया फिर पिताजी से कहा तत्काल अस्प्ताल ले जाएं हालत बहुत गम्भीर है। इसके बाद मुझे करीब पंद्रह दिन अस्पताल में रहना पड़ा। ये रामकृष्ण मिशन का अस्पताल था। जिसमे इंचार्ज डॉ सिपहा थे जिन्होंने मेरा उपचार किया। मै उनका आभारी रहूंगा कि मस्तिष्क ज्वर की स्थिति में भी उन्होंने मुझमे कोई स्थायी कमी नहीं आने दी। लेकिन दो माह तक पढ़ाई बंद करने का आदेश मुझ पर भारी पड़ा और मुझे विज्ञान वर्ग छोड़ कर आर्ट साइड आना पड़ा ताकि साल बचा सकूँ। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। कक्षा नौ तो मै पास हो गया लेकिन १० वीं में माँ की बीमारी के चलते न सिर्फ साल खराब हुआ बल्कि हरिद्वार भी छूट गया। फिर लखनऊ में मेरी पढ़ाई शुरू हुई।
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