उपेक्षित होता चित्रगुप्त समाज

देश में इस समय आम चुनाव की बयार चल रही है। इस समय रहनुमाओं ने लोगों को इंसान के रूप में देखना बंद कर दिया है। वैसे मेरे बाबा एक बात अक्सर कहा करते थे कि ये भेड़ बकरियों का देश। एक दिन मैंने उनसे कहा बाबा आप ऐसा क्यों कहते हैं आप भी तो देश में हैं। तो वह तुरंत बोले अरे बेवक़ूफ़ मै तो चरवाहा हूँ। उनका आशय समाज को दिशा देने से था। लेकिन आज के नेता जब अपनी दिशा और दशा तय नहीं कर पा रहे हैं तो वह देश को दिशा क्या देंगे। आम चुनाव की इस बयार में हर नेता जनता को निरा मूर्ख मानकर या उसे भेड़ बकरियों में रखकर खुद को चरवाहा मानकर चल रहा है। ये चुनावी नेता जनता को जानवर और देश को जंगल मानकर तो चल ही रहे हैं साथ ही जनता को उसकी जाति भी बताते चल रहे हैं। वह यह दहशत भी फैलाते चल रहे है कि देखो वो शेर है उसे मांस देना पडेगा नहीं तो तुम्हे खा जाएगा, वो देखो अजगर उसे नहीं दिया तो तुम्हे समूचा निगल जाएगा। और देखो मै तो भेड़िया हूँ भेड़ियों का तो मुझे ध्यान रखना ही है मुझे गौर से पहचान लो इस रूप में मै आपका कितना ध्यान रखूंगा जान लो। दूसरा कह रहा मैंने क्या बुरा किया पांच साल गाय के रूप में आपको दुहा और जो आपके बीच बूढ़े और बिना काम के जानवर थे उन्हें यदि कटवा कर मैने आपका चारा ही बचाया। तीसरा कहता है हाथियों के झुण्ड का ध्यान नहीं रखा तो बहुत भारी पडेगा। चौथे की दलील है देखो सियार लोमड़ी ही जंगल के असली राजा होते हैं। कुल मिलाकर ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, लोद, राजभर, दलित, जाट, जाटव, मुस्लिम, युवा, महिला  सब को लेकर तीर चल रहे हैं। लेकिन किसी भी दल ने कायस्थ या चित्रगुप्त समाज को अपने खांचे में नहीं रखा है। शायद इस वर्ग को लुभा पाना किसी के बूते में नहीं है। क्योंकि इस वर्ग का कोई नेता ही नहीं है। 

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