जब मुझे उपन्यास पढ़ने का चस्का लगा

बात कनखल में रहने के समय की ही है मै सनातन धर्म हायर सेकंडरी स्कूल में पढ़ने जाता था उस समय मुझे हफ्ते में एक रुपया जेब खर्च मिलता था उस पैसे से कभी मै सरदार जी से काले छोले की चाट खा लेता था कभी चूरन। स्कूल के बाहर आलू की चाट मिलती थी जो बहुत स्पेशल होती थी यहाँ बच्चों की लम्बी कतार लगती थी। इसमें उबले हुए आलू को ऊपर गोलाई में थोडा सा काट कर चाकू की नोक से खोखला करके खट मिट्ठी चटनी भरकर ऊपर उस आलू के टुकड़े का कैप लगाकर ऊपर से नमक मिर्च मसाला डालकर जब वह देता था तो गोलगप्पे का मज़ा जम जाता था। कभी कहीं से बच्चों में बंटने वाले पैसे मिल गए या कोई काम करवा कर किसी ने एक दो रूपए दे दिए तो एक रूपए की १०० ग्राम बर्फी, तिलबुग्गे लेकर भी खा लेता था या फत्तू हलवाई की लस्सी पी लेता था।
पढ़ने के लिए घर में किताबों का अम्बार था जिसमे मुख्यतः कल्याण के अंक और विशेषांक तथा दीदी पत्रिका के अंक, सरस्वती, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सचित्र आयुर्वेद और बाबा के पास सम्मति के लिए आने वाली किताबें, पत्रिकाओं के प्रथम अंक पता नहीं कितने अभिनन्दन ग्रन्थ । कल्याण में मै आखीर में भक्तों के अनुभव संस्मरण जरुर पढता था । कहानियां पढ़ने में बहुत मज़ा आता था । स्कूल आते जाते मेरी नज़र एक दिन किताबों की दूकान पर पड़ी उसने बताया दस पैसे में एक दिन के लिए किताब पढ़ने को देता है। मुझे मज़ा आ गया मैंने इब्ने सफ़ी की कहानियां। शरलक होम्स। गुलशन नंदा , शिवानी , राजन इकबाल सीरीज के बाल उपन्यास, ओमप्रकाश शर्मा , वेद प्रकाश शर्मा , कर्नल रंजीत और न जाने कितने उपन्यास पढ़ डाले। लेकिन इससे पढ़ाई प्रभावित हुई वो तो अच्छा हुआ अचानक हालात बदले और कनखल छूट गया। हम कानपुर होते हुए लखनऊ आ गए और मेरी भी दिशा बदल गयी। हालांकि इस झंझावात में मेरा एक साल माँ की बीमारी के चलते खराब हुआ लेकिन माँ थी तो सबकुछ था। 

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